Formula Hindi

Our treatments

Medicine with the green perspective.

( योग नं० 1 )
हृदय रोग

परिचम हृदय में चौबीस रक्त शिराएँ (ब्लड वेसला) होती है। जो रक्त का लगातार (चौबीस घंटे) आदान-प्रदान करती रहती है परंतु हृदय की क्रिया जिरा वस्तु द्वारा सम्पादित होती है उस वस्तु को रक्तकण कहते है। रक्तकण का कार्य है कि वह प्राणवायु (कार्बन-डाई-ऑक्साइड) को समस्त शरीर से संचित कर हृदय में लाता है और उसके पश्चात् फुफ्फुस (फेफड़ों) में से जाकर छोड़ देता है। यहाँ से वह प्राणवायु के स्थान पर अम्बर पीयुण (ऑक्सिजन) को लेकर रक्त का रूप धारण कर शिराओं द्वारा पुनः हृदय से होता हुआ समस्त शरीर में फैलकर जीवन संचालन का आधार बन जाता है। आयुर्वेद के साहिताकार व जन्मदाताओं ने जिस वस्तु को 'जीव' कहा है वह यही क्रिया है। यदि यह क्रिया होती रहे तो मनुष्य जीवित रहता है अन्यथा मृत घोषित कीया जाता है। व्याधि हृदय की धमनी (कॉरोनरी आर्टरी) की दिवालों पर फैट-लाईक द्रव (कॉलिस्टिरोल) व रक्त से उत्पन्न होने वाले मलों का संचय (जमाव) होने से हृदय की धमनियां कठिन (सख्त) होकर हृदय में प्राणवायु (कार्बन-डाइ-ऑक्साइड) तथा अम्बर पीयुण (ऑक्सिन) का वहन नहीं करती और जीस प्रदेश की धमनी कठिन हुई है उस प्रदेश का पोषण अटक जाने से तीव्र हृदय शूल होता है। यह एक प्रकार का हच्छूल (हार्ट एटेक) है। अन्य प्रकार के हृदय रोग रक्तकणों की दुर्बल्ता से शिराओं की विकृति से तथा मेद (फैट) की अधिकता से उत्पन्न होते हैं। लक्षण दिल पर घबराहट रहना, चक्कर आना व हृदय में जलन होना, हृदय: शूल (Pain in heart) एवं बायें तरफ सीने के पिछले भाग में तीव्र शूल (Suiting Pain) तथा अतः हृदय का कार्य ही समाप्त (Heart Failure) हो जाना। लाभ यह योग हृदय से संबंधित सभी विकारों को समूल (जड़ से) नष्ट कर हृदय की क्रिया को प्राकृत क्रम में ला देता है। हृदय को धमनीयों में जमे हुवे कॉलिस्टिरोल व रक्त से उत्पन्न होने वाले मलों का शोधन कर हृदय की धमनी व शिराओं को कोमल बनाकर हृदय में रक्त का सरलता से संचार करता है।

( योग नं० 2 )
मधूमेह

परिचय - अमाशय (स्टॅमक) एवं पक्वाशय (कौष्ठ) के मध्य में पंच्यम अनाशय (मोटी आंत) होती है। इस पंच्यम अनाशय में कई अग्नियां होती है जो शरीर हेतु पोषक तत्त्वों का पाक करती है इन अग्नियों में एक को धात्व अग्नि (पैक्रियाज) कहते हैं। यह अग्नि शरीर के लिये पाचक रस (इन्स्यूलिन) का पाक करती है। यदि किसी कारणवश इस पर कफ का प्रकोप हो जाएँ तो इस अग्नि के कार्य में मंदता आ जाती है क्योंकि कफ जिसके भी संम्पर्क में आता है उसके कार्य में मंदता ला देता है। धात्व अग्नि की इस मंदता के कारण शरीर में पाचक रस (इन्स्यूलिन) कम तथा शर्करा (सुगर) अधिक हो जाती है। इसे ही मधूमेह (Diabeties) कहते हैं। लक्षण - बार-बार मूत्र आना, मूत्र व रक्त में मिठास, मूत्र में चीटी लगना, चक्कर आना, हाथ व पैरों में थकान रहना, दृष्टि की कमी एवं शारीरिक दुर्बलता। जैसे-जैसे यह रोग पुराना होता जाता है वैसे-वैसे शरीर के हर अंग की हानि करता जाता है। लाभ - यह योग धात्व अग्नि (पंक्रियाज) की मंदता व निष्क्रियता को नष्ट कर फिर से कार्यरत बना देता है तथा शरीर में पाचक रस (इन्स्यूलिन) का सम (बराबर) अवस्था में पाक करता है। जो लोग मधूमेह हेतु प्रतिदिन दवाएँ व बाहर से इन्स्यूलिन लेते रहते हैं उन्हें इस योग को मात्र दो मांस सेवन करने से मधूमेह हेतु किसी दवा की जीवन में कभी आवश्यकता न होगी। इस योग के उपरान्त यदि रोगी मीठी-मीठी वस्तुएँ भी सेवन करें फिर भी नियमीत मात्रा में ही शर्करा उत्पन्न होगी। यह योग शरीर को दृढ़ व मजबूत बनाता है।

( योग नं० 3 )
जनरल टॉनिक (स्त्री हेतु)

स्त्री रोग मासिक (Monthly Period) के समय बस्ती (यूरिनर ब्लडर) में दर्द होना तथा अधिक व कम मात्रा में मासिक होना या समय से पहले व बाद में मासिक आना, शिर दर्द, कमर दर्द व शरीर में सुस्ती धकावट रहना। खाना पीना हजम (Digest) न होना, भूख न लगना, कब्ज (कॉन्स्टिपेशन) रहना तथा शरीर में गर्मी बढ़कर हाथ-पैर व आंखों में जलन होना। रक्त व अन्य पोषक तत्त्व की कमी होकर शरीर अत्यंत दुर्बल हो जाना एवं चेहरा फीका पड़ जाना तथा दो-तीन बच्चों की माता होने पर ही शरीर दिला व शुस्त हो जाना व काम-ईच्छा हो खत्म हो जाना। लाभ- यह योग ऊपर दिये सभी विकारों को नष्ट कर अन्न का पूर्ण परिपाक करता है तथा शरीर हेतु सभी धातुओं व रक्त की पुष्टि करता है एवं स्त्री को निरोग व तन्दरुस्त बनाए रखता है। स्त्री चाहे दस बच्चों की माता हो जाएं फिर भी चेहरे को रौनक व खुब शूरती को कायम रखता है तथा शरीर को सम (न अधिक मोटा-न अधिक दुर्बल) अवस्था में रखता है। यह योग काम-ईच्छा (Sex) को बढ़ाता है तथा शरीर को शक्ति व स्फूर्ति देता है।

( योग नं० 4 )
बाल टॉनिक (बच्चों के लिऐ)

बाल रोग - अम्ल पित्त (Acididy) होना, खट्टी-मोटी डकारें आना, गले में जलन होना, खाया-पिया हज्म (Digest) न होना, भूख न लगना व कब्ज (कांस्टिपेशन) रहना तथा पतले व आंव युक्त दस्त करना। बार-बार शर्दी-जुकाम होना। बीस्वर में ही पेशाब कर देना व पेट में कृमि (किड़े) पद बाना। दृष्टि (Aye site) की दुर्बल्ता के कारण नम्बरी चश्मा लगाना तथा खेल कुद में श्वास भर जाना व स्मरण शक्ति (Memory) कमजोर हो जाना एवं शरीर का पूर्ण विकास न होकर शरीर अत्यन्त दुर्बल हो जाना। साभ यह योग ऊपर दिये सभी बाल रोगों को नष्ट कर बालक को इस्ट-पुस्ट बनाता है तथा स्मरण शक्ति व नजर की वृद्धि में नम्बरी चश्में की हटाता है व याद-दास्त को बढ़ाता है। शरीर में रक्त व ओज (प्रोटिन) की वृद्धि कर बालक का पूर्ण विकास करता है तथा खेल कुद में हिस्सा लेने घर बालक को श्वास नहीं भरने देता। यदि इस योग को स्वस्थ बालक को दिया जाऐ तो भविष्य में बालक को अनेक रागों से मुक्त रखता है व हमेशा बालक को स्फूर्तिला बनाए रखता है।

( योग नं० 5 )
श्वास रोग (Ashthama)

परिचय जीन अंगों द्वारा श्वास प्रश्वास की क्रिया सम्पादित होती है उस अंग समूह का नाम श्वास संस्थान (Respiratory Centre) है। यह बाहर की वायु से अंम्बर पीयूण (ऑक्सिजन) लेकर नासिका छिद्र द्वारा वायु भीतर जाती है और कुछ समय रूक कर भीतर के दूषित वायु को लेकर आंख, नाक, कान व छाती की मांस पेशियों द्वारा बाहर आ जाती हैं। अधिकतर युवक एक मिनट में 18 बार श्वास लेते हैं और 72 बार हृदय धड़‌कता है। व्याधि - कफ का स्थान अमाशय (स्टॅमक) होता है। इस अमाशय में कफ ग्रंथियाँ (म्यूकस ग्लैंड) होती है। यदि किसी कारणवश इन ग्रंथियों में संक्रमण (इन्फेक्शन) फैल जाएँ तो वह कफ का अधिक पाक (उत्पादन) करने लगती है। इस कफ का कुछ भाग तो मल के साथ मिलकर बाहर निकल जाता है और कुछ भाग फुफ्फुस (फेफड़ों) के छिद्र व श्वास संस्थान में रूक कर वायु के मार्ग को अवरूद्ध कर देता है। इस कारण वायु अपनी प्राकृत दिशा को छोड़कर मूख से आने लगती है। इसे ही श्वास रोग (Ashthama) कहते है। लक्षण बार-बार शर्दी-जुकाम होना, मूख से कफ आना, चलने फिरने व कोई कार्य करने पर श्वास भर जाना, खांसने पर कफ के साथ रक्त आना तथा रक्त की कमी होकर शरीर अति दुर्बल हो जाना। यदि किसी समय श्वास संस्थान में कफ अधिक ही जमा हो जाऐ तो तीव्र श्वास अवरोध (Acute Respiratory Failure) होकर इन्सान को अकाल मृत्यु हो जाती है। लाभ यह योग कफ ग्रंथियों की शुद्धि कर श्वास रोग के मूल कारण को नष्ट करता है तथा श्वास संस्थान (फेफड़ों) में जमा हुवे कफ को धीरे-धीरे मल द्वार से निकाल कर फेफड़ों व श्वास मार्ग को निरोग व बलवान बनाता है। शरीर में रक्त व सभी धातुओं की वृद्धि कर शरीर को पुस्ट करता है तथा श्वास संबंधित किसी भी रोग को जीवन में दुवारा उत्पन्न नहीं होने देता एवं मनुष्य पैसे महाघोर रोग से मुक्त होकर सुख व आनंद पूर्वक जीवन व्यतीत करता है।

( योग नं० 6 )
अश्मरी (Stone Trouble)

परिचय - उदर अग्नि (पाचन क्रिया) को दुर्बलता के कारण जब खाएँ हुवे आहार का रस अपक्व (कच्चा) ही रह जाए तो वह आमरस या आमद्रव कहलाता है। वैसे तो यह मद्रव मल के साथ मिलकर मलद्वार से बाहर निकल जाता है परंतु इस द्रव का कुछ अंश यदि शरीर के भीतर किसी स्थान पर रूक जाये तो वह धीरे-धीरे पत्थर (Stone) का रूप धारण कर लेता है और शरीर के प्राकृत कार्य में बाधा डालता है। इसे ही अश्मरी या पत्थरी कहते है। व्याधि - ज्यादातर अश्मरी तीन हो स्थानों पर होती है। 1. पित्ताशय (गॉल ब्लडर) में पित्ताशय व उसको नली में अश्मरी होने पर बहुत हो तिक्ष्ण (सुई चूभने को सी) वेदना होती है तथा इससे पांडुरोग (पोलीया) भी हो जाता है। 2. मूत्राशय (यूरिनर ब्लडर) में यदि अश्मरी का कुछ अंश (टुकड़ा) मूत्राशय से निकल कर मूत्र मार्ग में फंस जाऐ तो मूत्र में बाधा होकर बहुत ही तेज दर्द होता है और यह मूत्र मार्ग अधिक समय तक रुका रहे तो मूत्राशय फट भी सकता है। 3. गुर्दे (किड्नी) में : यदि अश्मरी गुर्दे में स्थीत है तो उस प्रदेश में कभी बहुत तीव्र और कभी धीरे-धीरे दर्द होता रहता है तथा शरीर में रक्त को कमी आकर इन्सान अतयन्त दुर्बल भी हो जाता है। लाभ - अश्मरी शरीर के किसी भी स्थान पर स्थित हो यह योग दो से तीन माह की अवधि में समूल नष्ट कर देता है तथा उदर अग्नि की शुद्धि कर अश्मरी के मूल कारण को ही दूर कर देता है ताकि वह दुबारा उत्पन्न न हो सके। इस योग के सेवन से शरीर में रक्त व अन्य सभी धातुओं को वृद्धि होकर इन्सान को शक्ति व स्फूर्ति मिलती है।

( योग नं० 7 )
फूल बेहरी (चमड़ी विकार)(Leucoderma)

परिचय - पित्त को अधिकता के कारण शरीर में ऊष्मा (गर्मी) बढ़ जाती है और इस बड़ी हुई ऊष्मा से जो रक्त में कण (तत्त्व) होते हैं वह मृत होकर रक्त को दूषित कर देते है तथा इस दूषित रक्त से त्वचा (Skin) पर भीन-भीन प्रकार की व्याधियां उत्पन्न हो जाती हैं। इन व्याधियों में एक है फूल बेहतरी (Leucoderma - या Wite Spot) लाभ- यह योग विशेष कर फूल बेहरी (सफेद दाग) के लिऐ तैयार किया गया है। फूल बेहरी पूरे शरीर पर हो या एक दो स्थानों पर ये योग रक्त का संशोधन कर सफेद दाग को बाकी त्वचा के समान ही बना देता है शरीर को पहले से अधिक आकर्षक व चमकीला बनाए रखता है। अलावा चेहरे पर लाल व काले चकत्ते होना, एक्जिमा व खुजली शरीर पर छोटी-छोटी फून्सीयां होकर उनमें से पानी रिषना व धीरे-धीरे कौड़ का रूप धारण करते जाना। यह सब व्याधियां भी रक्त दूषित होने से होती है। इस योग के सेवन से यह विकार भी नष्ट हो जाते है तथा भविष्य में कभी कौढ़ जैसे अच्छूत रोग उत्पन्न नहीं हो पाते।

( योग नं० 8 )
जनरल टॉनिक

(स्त्री-पुरूष बच्चे-बुड़े सभी के लिये। परिचय - यदि इन्सान की धातु पाक (मेटाबोलिज्म), क्रिया कमजोर है तो वह शरीर हेतु पोषक तत्त्वों का उत्पादन (Produce) नहीं कर पाती। इस लिए इन्सान दुर्बल होता जाता है। यह पोषक तत्त्व सात प्रकार के होते है। 1. रक्त (Blood) 2. ओज (प्रोटिन) 3. मज्जा (केल्शियम) 4. शुक्र (वीप) 5. अस्थि (हड्डी) 6. पाचक रस (इन्स्यूलिन) 7. स्नेह (फेट)। यदि इन तत्त्वों का निर्माण बराबर होता रहे तो इन्सान निरोग व बलवान रहता है और इन तत्त्वों की कमी आने पर शरीर रोगग्रस्त व दुर्बल हो जाता है। लाभ यह योग धातुपाक क्रिया व पाचन क्रिया को निरोग व सबल कर शरीर हेतु सभी पोषक तत्त्वों का सही मात्रा में निर्माण करता है। बदहज्मी, गैस व कब्ज को नष्ट कर भूख को बढ़ाता है। स्मरण शक्ति व नजर की वृद्धि कर नम्बरी चश्मे को हटाता है। तथा याददाश्त को बढ़ाता है। स्त्री-पुरूष दोनों को खूब आनंद व लल्जत देता है तथा मर्द-स्त्री जब तक दोनों सन्तुष्ट न हो तब तक वीर्य का पतन (डोस्चार्ज) नहीं होने देता। यदि इस यांग को स्वस्थ इन्सान सेवन करे तो यह योग इन्सान को हमेशा इस्ट-पुस्ट व स्फूर्तिला बनाए रखता है तथा भविष्य में मधुमेह (Diabeties)) रक्तदाब (Blood Pressure) या हृदय रोग जैसे भयंकर रोगों से मुक्त रखता है।

( योग नं० 9 )
सन्तान हेतु

पुरूष रोग एक बार के शुक्र स्त्राव (डिस्चार्ज) में बीस करोड़ के आस पास पुंजीब (कीटाणु) होते हैं। शुक्र ग्रंथिया में पुंजीब अपक्व ही होते हैं और स्त्री-मैथुन के पश्चात् परिपक्व (स्पॅमेटोजनेसि) क्रिया होकर पुंजीब का रूप धारण कर स्त्री के गर्भाशय (बच्चादानी) में आते हैं। यदि किसी कारणवश यह ग्रंथियां दुर्बल हो जाये या इन ग्रंथियों पर किसी भारी तत्त्व का संचय (जमाब) हो जाए तो यह पुंजीब का पुर्ण पाक नहीं कर पाती। इसलिएं पुंजीब अपक्व व कम मात्रा ने ही स्त्री के गर्भाशय तक पहुँच पाते है। यदि शुक्र ग्रंथियाँ अपना कार्य रही सलामत कर रही है परंतु शरीर में तेजा (खोटी) गर्मी अधिक है फिर भी सन्तान उत्पन्न नहीं होती क्योंकि शरीर की इस खोटी गर्मी के कारण शुक्र ग्रंथियों से पुंजीब पैदा होकर स्त्री के गर्भाशय में पहुंचने से पूर्व हो मृत हो जाते है या फिर स्त्री के समीप जाते ही वीर्य का पतन (अर्ली डिस्चार्ज) हो जाता है। स्त्री रोग - पुरुष के समान ही स्त्री में पुंजोब की क्रिया हुआ करती है। अन्य विकार इस प्रकार है। गर्भाशय को दुर्बलता के कारण बार-बार गर्भपात होना, एक बालक होकर गर्भ धारण शक्ति ही नष्ट हो जाना, मरे हुए या अल्पायु (कम आयु वाले) बालक होना, गर्भाशय की नली (ट्यूब) में स्नेह (फॅट) या अन्य किसी तत्त्व का संचय होने से गर्भाशय का मार्ग ही बंद हो जाना। लाभ- यदि विवाह को बीस वर्ष भी बीत गये हो फिर भी इस योग के सेवन से अवश्य ही सन्तान उत्पन्न होगी। यह योग स्त्री-पुरूष दोनों में काम-शक्ति (Sex Power) की वृद्धि करता है तथा स्वस्थ व बलवान बालक पैदा करता है। इस योग को श्री बद्रीनाथ जी के विश्वास पर उसका प्रशाद समझ कर सेवन करना चाहिऐ।

( योग नं० 10 )
केश वर्धक (Hair Tonic)

परिचय केश (बाल) की जड़ों में एक प्रकार का चिकनाई युक्त द्रव होता है। यह द्रव मज्जा धातु (केल्शियम) के समान ही होता है। यदि किसी कारणवश यह द्रव कम हो जाए या वह दूषित हो जाए तो चमड़े पर जो केश को पकड़ होती है वह कमजोर होकर धीरे-धीरे केश गिरने लगते है तथा सिर में खुश्की फैलकर सिर दर्द व बेचैनी रहने लगती है तथा कम आयु में हो केश पक कर सफेद हो जाते हैं या सिर में ऊचका (कीड़ा) ) लग जाता है। यदि किसी समय यह समस्त द्रव नष्ट हो जाए तो एक साथ सभी बाल गिर कर सिर को गंजा कर देते हैं। लाभ - केश की जड़ों में जो द्रव होता है यह योग उस द्रव की वृद्धि कर केस को लम्बा, धना व मजबूत बनाता है। सिर दर्द को नष्ट कर दिमाग को तर व शांत रखता है। कम आयु में हुए सफेद केश को जड़ से काला करता है तथा केशों को गिरने से रोकता है।

( योग नं० 11 )
तीलाह तेल (Special)

कारण कम आयु में अधिक हस्थ मैथुन करने से या बाजारू औरतों के सम्पर्क से लिंग की माँसपेशियों में तेजा (खोटी) गर्मी आ जाती है। इस कारण मांसपेशियाँ खुष्क होकर खिंच जाती है या अपनी जगह से हट कर लिंग में बदलाव ला देती हैं। जैसे आगे पिछे से मोटा और बीच में पतला व दायें-बाये मूड़ जाना, नीचे झुक जाना, या अन्दर की ओर धंस कर छोटा हो जाना तथा स्त्री-मैथून के समय पूरी तरह सख्त न होकर ढीला हो जाना व शोध पतन (अलॉ डिस्चार्ज) हो जाना। लाभ इस योग के उपयोग से लिंग की माँसपेशियां खुल कर लिंग को एक समान बना देती है। तथा पहले की भाँति कुछ लम्बा व मोटा बनाकर स्त्री मैथून के समय पूर्ण स्तंम्भकता (सख्ती) देता है। यह योग रूकावट-शक्ति (Sex Power) को बढ़ा कर स्त्री-पुरूष दोनों को विवाहित जीवन का आनंद देता है। स्त्री हेतु - जोन स्त्रीयों के स्तन छाती से चीपके रहते हैं ऊपर की ओर नहीं उठते या बच्चों को दूध पीलाने से दिले पड़ जाते हैं। उन्हें इस तेल को दोनों स्तन पर लगाने से स्तनों को संतरे के समान गोल व लचिले आकार का बना देता है तथा योनी (मूत्र मार्ग) पर लगाने से स्त्री चाहे दस बच्चों की माता हो जाऐ फिर भी योनी को दिला न पड़ने देगा तथा योनी को १६ साल की बालिका के समान बनाये रखेगा।

( योग नं० 12 )
बाल पक्षवध लकवा (Polio-Paralysis)

परिचय यह रोग मस्तिष्क के नाड़ी-मण्डल का है। यह दो प्रकार का होता है। बच्चों में तथा बड़ों में। 1. बच्चों में :- अर्षाष्टिक भोजन से, संह (फैट) रहित आहार से या ज्वर (बुखार) के तीव्र वेग से मस्तिष्क के नाड़ी-मण्डल को स्नेहता नष्ट हो जाती है। इससे रक्त स्त्रांत (ब्लड बेसल्स) खुष्क होकर रक्त का वहन करना बन्द कर देते हैं और जीस अंग की नाड़ीयां खुष्क हुई है वह अंग अपना कार्य नहीं कर पाता। इसमें हाथ-पैर व अन्य कोई भी अंग बेकार हो जाता है। इसे बाल पक्षवध (Polio) कहते हैं। 2. बड़ों में :- वायु का स्थान पक्वाशय (कौष्ठ) होता है। यदि इसमें अधिक समय तक मल या उसका कुछ अंश रुका रहे तो वह स्वभाव से अधिक वायु पैदा कर देता है। यदि वह वायु पित्त के साथ मिलकर कुपित हो जाए तो अचानक नाड़ीयों में शोष (गर्मी) फैल जाती है। इस कारण रक्त का दबाव (प्रेशर) अति तीव्र होकर या तो नाड़ीयां फटकर मनुष्य को मृत्यु हो जाती है या फिर नाड़ीयां रक्त का वहन करना बन्द कर देती है। शरीर के जिस अंग में रक्त का महन बंद हुआ है वह अंग धीरे-धीरे सुखने लगता है तथा कार्यहिन हो जाता है। इससे को लकवा (Paralysis) कहते हैं। लाभ बाल पक्षवध (Polio) या लकवा (Paralysis) दोनों ही प्रकार के रोग में यह योग सर्व उत्तम है। यह योग नाड़ीयों की नष्ट हुई स्नेहता को वापस लाकर उन्हें कोमल बनाता है तथा रक्त का सरलता से संचार करता है। शरीर का जो अंग बेकार हुआ है उस अंग को पुस्ट कर पहले की भाँति कार्य करने की क्षमता प्रदान करता है तथा वह मनुष्य दूसरों के समान कार्य करने लगता है।

( योग नं० 13 )
अपस्मार (Epilepsy मृगी)

परिचय यह रोग मस्तिष्क के ज्ञान नाड़ी-मण्डल का है। यदि मस्तिष्क में दूषित वायु पहुँच कर अपना स्थान बना ले या मस्तिष्क में तम अवगुण (विशुद्ध तत्त्व) की वृद्धि हो जाए तो ज्ञान का वहन करने वाली नाड़ीयां अचानक निष्क्रिय हो जाती है और शरीर के अंगों द्वारा मस्तिष्क जो कार्य करवाता है वह क्रियाएँ व मनुष्य की सोच (Memory) नष्ट होकर मनुष्य मूर्छित (बेहोस) हो जाता है। मनुष्य को मूर्छित हांकर गिरने से पूर्व हाथ-पैर व मूख (Mouth) की मांस पेशियां ऐंठ जाती है, नेत्र लाल हो जाते हैं, मुख से झाग आने लगता है तथा आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है। इस प्रकार के वेग (दौरे) मनुष्य को किसी भी समय किसी भी स्थान पर अचानक ही कुछ-कुछ दिनों के अनान्तर आते रहते हैं। इसी को अपस्मार (Epilepsy) कहते हैं। यह रोग अलग-अलग मनुष्य में अलग-अलग रूप से आता है। लाभ - यह योग मस्तिष्क के ज्ञान नाड़ी-मण्डल की शुद्धि कर नाड़ीयों में आये विशुद्ध तत्त्व को निकाल वायु को शांत करता है तथा ज्ञान का वहन करने वाली नाड़ोयों को नई शक्ति व नया खुन प्रदान करता है। इस योग के सेवन से जीवन में दूबारा अपस्मार के दौरे मनुष्य को नहीं आते व मनुष्य ऐसे लज्जा जनक रोग से मुक्त होकर सुखी जीवन व्यतित करता है। यह योग दिमागी पागलपन में भी पूर्ण लाभ करता है तथा दिमाग शक्ति को बढ़ाकर है दिमाग को शांत व तर रखता है एवं नाड़ीयों में शुद्ध रक्त का संचार करता है।

( योग नं० 14 )
अर्श (पाइल्स बवासीर)

परिचय - अर्श का स्थान मलद्वार (एनस) होता है और जहाँ से अर्श उत्पन्न होता है उस स्थान को उत्तरगुद (रेक्टम) कहते है। इस गुद को लम्बाई 4 1/2 अंगुल को होती है और इसका कार्य है कि यह मल त्याग से पूर्व स्वयं बंद रह कर मल को नीचे आने से रोकता है। व्याधि - अर्श दो प्रकार के होते हैं। वातज (बादी) तथा रक्तज (खुनी)। 1. वावज मांसधातु की दुर्वल्ता के कारण मांसमय मण्डल (मस्क्यूलर कोट्स) दुर्बल होकर संचित रक्त को आगे की ओर धकेल नहीं पाते। वह इस ग्क्त को स्वयं अपने पास रखकर फूल जाते हैं और इन्हें ही मांस अंकुर (मस्स) कहते है। यदि यह रोग पुराना हो जाए तो मौस अंकुर बाहर की ओर लटक जाते हैं। 2. रक्तज :- यदि माँसधातु की दुर्बलता के साथ-साथ बायु का भी प्रकोप हो जाएँ तो वह मल को खुष्क व ग्रंथित बना देता है और इस ग्रंथित मल का जरा सा भी दबाव माँस अंकुरों पर पड़ जाएं तो उनमें से रक्त निकलने लगता है। यही रोग पुराना हो जाये तो माँस अंकुरों में तनिक झटका लगने से या अपने आप ही रक्त बहने लगता है। दोनों ही प्रकार के अर्श में इन्सान को फन्न (कॉन्स्टिपेशन) रहता है तथा रक्त को कमो होकर शरीर अति दुर्बल हो जाता है। लाभ- यह योग मौसधातु की शुद्धि कर वायु को शांत करता है। माँस अंकुरों (मस्सों) को सुखाकर नष्ट कर देता है तथा कब्ज को दूर कर भूख को बढ़ता है। शरीर में रक्त की वृद्धि कर शारीरिक शक्ति व स्फूर्ति देता है। यह योग भर्गदर में भी पूर्ण व शीघ्र लाभ करता है।

( योग नं० 15 )
मेदस्वि (मोटापा Heviness)

परिचय - मेदस्वि स्त्री-पुरूष को अन्न को इच्छा अधिक होती है परंतु उस अन्न में से रक्त व अन्य पौष्टिक धातुओं को पुष्टि न होकर कंवल मंद (चर्बी) का सविषेश पोषण होता है। इसका अर्थ यह है कि धातुपाक (मेटाबोलिज्म) क्रिया की दुर्बलता के कारण आंज (प्रोटिन) सर्वप्रथम स्निग्ध द्रव (कार्बोहाईड्रेट) में परिवर्तित होता है ततपश्चात् वह स्नेह (फंट्स) में बदल कर माँस के पुतों में समा जाता है और शरीर को स्थूल (हिला-बाला) बना देता है। यह स्वयं कोई रोग न होकर अनेक भयंकर रोगों का जन्मदाता है। व्याधि स्नेह सदृश-फेट लाईक तत्त्व (कालिस्टिल) या कंवल स्नेह का कुछ अंश यदि रक्त में मिल जाए तो रक्त गाढ़ा हो जाता है। इस कारण हृदय में रक्त का सरलता से आदान-प्रदान नहीं हो पाता और इच्छूल (हार्ट एटेक) होकर इन्सान की अकाल मृत्यु हो जाती है या रक्त दाब (ब्लड प्रेशर) बढ़कर इन्सान को लकवा (Paralysis) हो जाता है। इसी प्रकार अनेक रोग मंदस्त्वि इन्सान को असमय ही घेर लेते हैं। लक्षण भूख एवं प्रयास अधिक लगना, चलने फिरने पर श्वास भर जाना। नींद आलस्य व पसीना अधिक आना तथा रक्त, वीर्य व आंज (प्रोटिन) की कमी होकर शारीरिक सुस्ती थकावट रहना व काम-शक्ति (संक्स पावर) हो नष्ट हो जाना। लाभ- यह यांग सर्व प्रथम धातु पाक क्रिया को सबल कर स्नेह (फैट्स) को उत्पन्न होने से रोकता है उसके पश्चात् बढ़े हुए स्नेह को धीरे-धीरे पसिने व मल के साथ निकाल कर अवश्य ही इन्सान का भार (वेट) कम करता है तथा इन्सान को स्वस्थ व निरोग बनाकर काम शक्ति की वृद्धि करता है।

( योग नं० 16 )
प्रदर (Leucorrhoea)

परिचय यह रोग दो प्रकार का होता है। रक्त प्रदर व श्वेत प्रदन। 1. रक्त प्रदर :- स्त्रीयां मृदु (कोमल) स्वभाव की होती है। यदि वे किसी ऊष्ण आहार का सेवन करती रहे तो उनके शरीर में तेजा (खोटी) गर्मी बढ़‌कर पित्त को दूषित कर देती है। इस कारण धातुपाक (मेटाबोलिज्म) क्रिया खराब होकर अपक्व (कच्चे) रक्त को स्वभाव से अधिक पैदा कर देता है और यही दूषित रक्त गर्भाशय की बारीक नलिकाओं द्वारा योनी (मूत्र मार्ग) तक जाकर रक्त का स्त्राव करता है। इसी को रक्त प्रदर कहते हैं। इसमें स्त्राव पहला पित्त युक्त, सुर्ख रंग का फैन वाला होता है। यदि यह रोग अधिक बढ़ जाएँ तो स्त्राव काला व चीप-चीपा आने लगता है। 2. श्वेत प्रदर :- स्त्री फी यांनी (मूत्र मार्ग) की दिवालों में जो बारीक-बारीक छिद्र होते है उनमें से सफेद रंग का पतला द्रव निकलता है। यदि इस दव में रक्त भी शामिल हो जाएं तो वह गाढ़ा व चीप-चीपा हो जाता है। लक्षण दोनों ही प्रकार के प्रदर में रक्त की कमी होकर स्त्री दुर्बल व चीड्‌चोड़ मिजाज को हो जाती है तथा शरीर फीका पड़ जाता है। चेहरे पर लाल व काले दाग होना, हाथ-पैर व आँखे में जलन होना, शिर व पूरे बदन में दर्द रहना, भूख न लगना तथा कब्ज़ (कान्स्टिपेशन) रहना। लाभ यह योग धातु पाक क्रिया को ठिक कर शुद्ध रक्त का व सभी धातुओं का सम अवस्था में पाक करता है तथा ऊपर दिये सभी लक्षणों को नष्ट कर हर महिने सही समय पर सन्तुलित मासिक स्त्राव लाता है तथा स्त्री को हमेशा निरोग व तन्दरुस्त बनाए रखता है।

( योग नं० 17 )
कौष्ठगत वात (गैस टूबल)

परिचय - मनुष्य जो अन्नपान लेता है उसका पाक (पाचन) तीन स्थानों पर होता है। सर्वप्रथम जहाँ अन्नपान जाकर रूकता है उस स्थान को अमाशय (स्टॅमक) कहते है। इस अमाशय में कफ ग्रंथियाँ (म्यूक्स ग्लैंड्स) होती है जो अन्न को कफ में नम (गीला) कर पतला द्रव बनाकर अर्थ पाक करता है। यहाँ से अर्ध पक्व अन्न रस (पैक्रियाटिक जूस) बनकर पंच्यम अनाशय (मोटी आंत) में से धीरे-धोरे गुजरता है। यहाँ पर सात प्रकार की अग्नियाँ (ग्लैंड्स) होती है जो शरीर हेतु अपने-अपने पोषक तत्त्व का निर्माण करती है। यहाँ से अन्न रस मल का रूप धारण कर पक्वाशय (कोष्ठ) में आता है। शेष पाक इस स्थान पर होता है। यह सम्पूर्ण कार्य वायु के दबाव (प्रेशर) द्वारा ही सम्पन्न होता है। यदि शरीर में वायु ही मंद हो जाऐ तो इस कार्य में भी मंदता आ जाती है और बायु मंद होने का कारण यह है कि अमाशय में जो कफ ग्रंथियाँ होती है यदि उनमें से कफ अधिक मात्रा में उत्पन्न होने लगे तो वह अन्नरस के साथ मिलकर पंथ्यम अनाशय में आ जाता है जीससे वहाँ की अंग्नियाँ दुर्बल होकर अन्न का पूर्ण नहीं करती और वह अर्ध पक्व (कच्चा) अन्न रस पक्वाशय में आ जाता है। ऊपर से वायु का दवाव मंद होने के कारण वह अधिक समय तक यहाँ पर पड़ा रहता है। इस अर्ध पक्व मल में एक सड़नशील पदार्थ होता है जो शीघ्र ही सड़‌कर कौष्ठगत वात (गैस टूबल) को उत्पन्न करता है। लक्षण - अम्लपित्त (Acidity) होना, खट्टी-मोठी डकारें आना, गले में जलन होना, खाया-पीया हजम न होना, भूख न लगना, कब्ज रहना, संग्रहणी (डिसेन्ट्री) होना तथा अलसर होना। लाभ- यह योग सर्वप्रथम कफ ग्रंथियों की शुद्धिकर पाचन क्रिया को सबल बनाता है तथा अन्न में से शरीर हेतु सभी पोषक तत्त्व का निर्माण कर मनुष्य को हमेशा निरोग व तन्दुरूस्त रखता है। कौष्ठगत वात या पेट सम्बधि किसी भी विकार को समूल नष्ट कर पाचन शक्ति को बढ़ाता है।

( योग नं० 18 )
रक्तदाब (Blood Pressure)

परिचय रक्तदाब दो प्रकार का होता है। उच्च व न्यून। 1. उच्च (High) :- रक्त स्त्रोत (ब्लड वेसल्स) में सर्वप्रथम स्नेह सइरा तत्त्व (कॉलेस्टिरोल) का संचय (जमाव) होता है बाद में अन्य तत्त्वों का। अन्य तत्त्वों में जटिल रचना वाले (कॉर्बोहाड्रेट) व रक्त से उत्पन्न होने वाले तत्त्व सौत्रिक धातु (फाइनस टिल्यू) तथा मज्जा (केल्सियम) होता है। इन तत्त्वों का जमाव होने से रक्त स्त्रोत कठिन (सख्त) होकर सुकड़ जाती है। इस कारण रक्त के बहन में बाधा (रूकावट) होती है और मस्तिष्क के नाड़ी-मण्डल को रक्त व अम्बर पीयूण (ऑक्शिजन) को समस्त शरीर में पहुँचाने के लिए अपना कार्य अधिक बल से करना पड़‌ता है और इस अधिक बल के कारण नाड़ीयों में रक्त का दबाव (प्रेशर) बढ़ जाता है। इसे ही उच्च रक्तदाब (High Blood Pressure) कहते है। सिर में दर्द रहना, आँखे लाल होना, दिल में धबराहट व बैचेनी रहना तथा पसीना आना। यह सब उच्च रक्तदाब की निशानी है। 2. न्यून (Low) :- शरीर को ऊर्जा (एनर्जी) कम होने से या वायु की मंदता के कारण रक्त स्त्रोतों में रक्त का वहन पूर्ण रूप से नहीं हो पाता। जैसे वाटर वस के नल में दबाव (प्रेशर) कम हो तो पानी देर से व कम मात्रा में पहुँचता है। ठिक उसी तरह यह क्रिया होती है। रक्त दाब न्यून (कम) होने से सुस्ती थकावट रहती है, नौद अधिक आती है तथा शारीरिक दुर्बलता रहती है। यदि किसी वक्त यह रक्तदाब सर्वाधिक न्यून हो जाए तो मनुष्य की तुरंत मृत्यु हो जाती है। लाभ यह योग नाड़ीयों में संचित (जमे) हुये सभी तत्त्वों को निकाल कर नाड़ीयों को कोमल व मूलायम बनाता है। दोनों ही प्रकार के रक्तदाब को ठीक कर रक्त स्त्रोतों में रक्त का वहन सम (न कम-न ज्यादा) अवस्था में करता है तथा रक्त संचार की एक अवस्था (स्टेज) बनाकर फिर से इस रोग को उत्पन्न नहीं होने देता एवं दिल व दिमाग को तरो-ताजा व शांत रखता है।

( योग नं० 19)
सदा मस्तानी पिल्स

परिचय - जो लोग बजारू औरतों का उपयोग करते हैं या बचपन में अधिक हस्थ-मैथून करते है तथा ऊष्ण वस्तुओं का सेवन करते रहते हैं उनके शरीर में रक्त व ओज़ (प्रोटिन) को कमी होकर शुक्र ग्रंथियाँ कमजोर हो जाती है और स्त्री-मैथून के समय वह ग्रंथियाँ शीघ्र गर्म होकर वीर्य का पतन (अर्ली डिस्चार्ज) कर स्त्री-पुरुष दोनों को विवाहित जीवन के आनंद से वंच्छित रखते है। इसी तरह अनेक लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे लिंग में पूर्ण स्तम्भकता (सख्ती) न आना, स्त्री के समीप जाने व स्त्रीयों के स्तन (छाती) को दबाने से ही वीर्य का पतन हो जाना तथा काम-शक्ति (सेक्स पॉवर) हो नष्ट हो जाना। लाभ यह योग शुक्र ग्रंथियो की दुर्बल्ता व ऊष्णता को नष्ट कर उन्हें शक्ति व धीरज प्रदान करता है तथा गोर्य को पुष्ट व गाढ़ा कर काम-शक्ति (सेक्स पाँचर) की वृद्धि करता है एवं स्त्री-मधून के समय लिंग को पूर्ण दृढ़ (टाईट) कर 15-20 मिनट की रुकावट शक्ति देता है। इस योग के उपरान्त यदि स्त्री-पुरूष एक रात में तीन चार बार भी भोग-विलास कर लें फिर भी उनको शारीरिक थकान व दुर्बलता मालूम न होगी। इस योग को यदि स्वस्थ इन्सान सेवन करें तो 70 वर्ष की आयु तक काम-शक्ति व चेहरे की चमक दमक बनी रहेगी। इस योग के सेवन से शांत निंद्रा आती है व स्मरण-शक्त्रि बढ़ती है तथा हृदय (Heart) मजबूत होता है एवं निकट भविष्य में की मधुमेह (Diabeties) या रक्तदाब (Blood Pressure) जैसे भयंकर रोग को उत्पन्न नहीं होने देता।
द्रव्य :- स्वर्ण भस्म, मोती भस्म, स्वर्ण माक्षिक भस्म, वज्र वेधान्त रस, वसन्त कुरामाकर रस, वसन्त मालती रस, रस सिन्दूर, केशर, कस्तुरी तथा शहस्त्र पुठी फौलाद।

( योग नं० 20 )
शिरःशूल व प्रतिश्याय (नजला)

परिचय जैसे रेल के इंजन, डिब्बे व मोटर गाड़ी में टक्कर लगने से अंदर बैठी पात्रीयों को नुक्सान न पहुँचे इसलिए, रेल मोटर में जो रचना होती है उसको 'बफर कहते है। ठीक उसी तरह हृदय की रक्षा के लिए पंजर की रचना हुई और मस्तिष्क की रक्षा के लिऐ कपाल की। इस कपाल में कई बफर होते हैं परतु यहाँ पर इनको कोटर (सायनसेस-एयर सेल्स) कहते है। इनमें दो बड़े कोटर होते हैं जो नासिका में दोनों ओर पुर:कपाल (फ्रंटल बोन) में होते है। इन कोटरों में वायु तथा जल के समान पतला व लेषदार द्रव होता है। यदि किसी कारणवश इनमें संक्रमण (इन्फेक्शन) हो जाएं तो नासिका की भौतरी श्लेष्मकला (नाक को हड्डी) में शोध कर अनेक लक्षण उत्पन्न कर देता है। जैसे नाक की हड्‌डी बढ़ जाना, बार-बार शर्दी जुकाम होना, नाक से जल के समान पतला द्रव आना या मूख से कफ आना। इस रोग का दूसरा पहलू है सिर शूल। यदि वह पतला द्रव नासिका से निकलने के बजाए रक्त में मिलकर मस्तिष्क के किसी रक्त स्त्रोत (ब्लड वेसल्स) में संचित हो जाएँ तो रक्त के आदान-प्रदान में बाधा आ जाती है परतु वायु रक्त को मस्तिष्क में अधिक बल से पहुँचने की कोसोश करता है और मस्तिष्क के जिस भाग में बाधा हुई है उस भाग में या पूरे शिर में दर्द होने लगता है। इस शूल के कई रूप होते है जैसे सूर्योदय के साथ उत्पन्न होना और सूर्यास्त के समय खत्म हो जाना, आधे सिर में दर्द होना सिर भारी रहना, चक्कर आना तथा पूरे सिर में तीव्र शूल होकर उल्टीयाँ होना। लाभ- यह योग शिर में किसी भी प्रकार के दर्द व पुराने से पुराने प्रतिश्याय (नजले) को नष्ट कर पुरःकपाल में बसे तमाम कोटरों की शुद्धि करता है तथा संक्रमण (इन्फेक्शन) को नष्ट कर पैसे रोगों से उत्पन्न होने वाले श्वास रोग (Ashthama) को जोवन में कभी भी पैदा नहीं होने दोता। इस योग के सेवन से मनुष्य को कभी एलर्जी नहीं हो सकती क्योंकि यह योग एलर्जी के प्रतिकारक तत्त्व (एन्टीएलर्जीक) को सही मात्रा में उत्पन्न करता है।

( योग नं० 21 )
आमवात-संधिवात (Rheumatism-Artheritis)

परिचय - अमाशय (स्टॅमक) की दुर्बलता के कारण जब खाये हुये आहार का रस अच्छी तरह नहीं पचता तो वह एकत्र होकर कफ व पित्त के साथ मिलकर आमरस (अम्लीभूत) हो जाता है और यह विशेष अम्लरस (यूरिक एसिड) रक्त में मिलकर वायु द्वारा संधियों में पहुँच जाता है। इस कारण संधियों में दर्द (Joint Pain) होने लगता है। अन्य लक्षण इस प्रकार है संधियों में जलन होना या मोड़ने पर कठिनाई होना तथा संधियों में सुजन आ जाना। यह रोग एक स्थान से उत्पन्न होकर धीरे-धीरे शरीर की तमाम संधियों को पकड़ लेता है। यदि यह रोग पुराना व अधिक हो ताऐ तो इन्सान सिर्फ संय्या (खाट) में ही सिमट कर रह जाता है। चलने-फिरने के लायक ही नहीं रहता। लाभ - इस योग का प्रथम कार्य है अमाशय, आंत्र व संधियों का शोधन कर सन्चित अम्लरस (यूरिक एसिड) को निकालना। यह योग संधियों के दर्द व सुजन को नष्ट कर शरीर के तमाम जोड़ों को शक्ति देता है। तथा आमवात-संधिवात को समूल नष्ट कर मनुष्य को ऐसे रोगों से हमेशा मुक्त रखता है और आम इन्सान की तरह धूमने-फिरने लायक बनाऐ रखता है।

( योग नं० 22 )
चाँच पिल्स (स्पेशल)

उपयोग- यह योग सब प्रकार की दुर्बलता को नष्ट कर मनुष्य में कामशक्ति (सेक्स पॉवर) को वृद्धि करता है तथा सम्भोग के समय रूकावट शक्ति को बढ़ाकर स्त्री-पुरूष दोनों को आनंद देता है। इसके सेवन से शांत निंद्रा आती है, स्मरण शक्ति बढ़ती है तथा हृदय को बल मिलता है। यह योग शरीर में रक्त की वृद्धि कर वीर्य को पुष्ट करता है तथा स्त्री-मैथून के समय वीर्य का पतन (डिस्चार्ज) शीघ्र नहीं होने देता। यदि इस योग को स्त्री-पुरूष दोनों सेवन करें तो दोनों की रग-रग में उमंग व स्फूर्ति भर देगा तथा बूढ़ापे तक काम-शक्ति को बनाए रखेगा। चोंच पिल्स का योग उत्तन बाजीकर, बलकारक व पूर्ण उत्तेजना देने वाला है।